Skip to content

बासे भोजन करने मात्र से मनुष्य की होती है बुद्धि भ्रष्ट -पूज्य श्री देवकीनंदन ठाकुर जी

  • by

बासे भोजन करने मात्र से मनुष्य की होती है बुद्धि भ्रष्ट -पूज्य श्री देवकीनंदन ठाकुर जी

विश्व शांति सेवा चैरिटेबल ट्रस्ट के तत्वावधान में पूज्य श्री देवकीनंदन ठाकुर जी महाराज के पावन सानिध्य में 27 जनवरी 02 फरवरी 2023 तक स्थान – 9, प्रिंसेस श्राइन, पैलेस ग्राउंड, बैंगलोर में श्रीमद भागवत कथा का आयोजन किया किया गया।

श्रीमद् भागवत कथा के सप्तम दिवस पर महाराज श्री ने श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता की सुंदर कथा श्रोताओं को श्रवण कराई। कथा के सप्तम दिवस पर हजारों की संख्या में भक्तों ने महाराज श्री के श्रीमुख से कथा का श्रवण किया।

भागवत कथा के सप्तम दिवस की शुरुआत भागवत आरती और विश्व शांति के लिए प्रार्थना के साथ की गई।

पूज्य श्री देवकीनन्दन ठाकुर जी महाराज ने कथा पंडाल में बैठे सभी भक्तों को भजन ” जगत सब छोड़ दिया सांवरे तेरे पीछे” श्रवण कराया।

पूज्य श्री देवकीनंदन ठाकुर जी महाराज ने कथा की शुरूआत करते हुए कहा घरो में नित्य जिन बातों को समझकर हमें काम करना चाहिए

गृहस्थीयो के लिए विशेषकर उन बातों को कथाओं में इन्वॉल्व किया गया सिर्फ गृहस्थीयो के कल्याण के लिए क्यों कि कई चीजें ऐसी होती है जिनको व्यक्ति जाने अनजाने में करता है और खामियाजा पूरे परिवार को भोगना पड़ता है।

आज कल एक कल्चर चला है फ्रिज कल्चर सभी के घरो में फ्रिज कल्चर है। फ्रिज सिस्टम हमारे संस्कारों के लिए साक्षात् काल है फ्रिज सिस्टम का मतलब जो बचा वो फ्रिज में रख दिया जो भी बचा आटा बचा फ्रिज में सब्जी बची फ्रिज में आदमी काटके भी फ्रिज में लेकिन हम 35 टुकड़ो की बात नहीं कर रहे है। जिन्होंने अपने माँ बाप के सम्मान को ताक पर रख दिया हो उन्ही के तो 35 टुकड़े हुए काश वो अपने माँ – बाप के सम्मान को ध्यान रखते शायद उनको वो अधिकार भी नहीं मिल पाता।

महाराज श्री ने कहा कि हम उस बिषय में नहीं जायेंगे हम बात कर रहे है फ्रिज सिस्टम की सब्जी बची फ्रिज में रोटी बची फ्रिज में आटा बचा फ्रिज में जो भी माताएं बहन फ्रिज में रखे आज रात के आटे को कल सुबह यूज़ करती है वो अपने परिवार के लोगो की बुद्धि को भ्रष्ट करने में सबसे अहम भूमिका निभाती है।

जब आप कहते हो न की हमारे पति का दिमाग ठीक नहीं चलता बेटे का दिमाग सही नहीं चलता उसमे आप ही का रोल है आपने कहा फ्रिज में रखकर कोई चीज खराब नहीं होने पर बासी तो होगी स्मेल नहीं आएगी मानलो लेकिन फ्रिज में आटा रखा और अगर आपने उसका प्रयोग किया तो आपके घर वाले जो भी उस भोजन को करेंगे उसकी बुद्धि भ्रष्ट होने से कोई नहीं रोक सकता।

पूज्य श्री देवकीनंदन ठाकुर जी महाराज ने कथा का क्रम सुनाते हुए श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता की कथा श्रोताओं के श्रवण कराई। सुदामा एक गरीब ब्राह्मण था। वह और उसका परिवार अत्यंत गरीबी तथा दुर्दशा का जीवन व्यतीत कर रहा था। कई-कई दिनों तक उसे बहुत थोड़ा खाकर ही गुजारा करना पड़ता था। कई बार तो उसे भूखे पेट भी सोना पड़ता था। सुदामा अपने तथा अपने परिवार की दुर्दशा के लिए स्वयं को दोषी मानता था। उसके मन में कई बार आत्महत्या करने का भी विचार आया। दुखी मन से वह कई बार अपनी पत्नी से भी अपने विचार व्यक्त किया करता था। उसकी पत्नी उसे दिलासा देती रहती थी। उसने सुदामा को एक बार अपने परम मित्र श्रीकृष्ण, जो उस समय द्वारका के राजा हुआ करते थे, की याद दिलाई। बचपन में सुदामा तथा श्रीकृष्ण एक साथ रहते थे तथा सांदीपन मुनि के आश्रम में दोनों ने एक साथ शिक्षा ग्रहण की थी। सुदामा की पत्नी ने सुदामा को उनके पास जाने का आग्रह किया और कहा, “श्रीकृष्ण बहुत दयावान हैं, इसलिए वे हमारी सहायता अवश्य करेंगे।’ सुदामा ने संकोच-भरे स्वर में कहा, “श्रीकृष्ण एक पराक्रमी राजा हैं और मैं एक गरीब ब्राह्मण हूं। मैं कैसे उनके पास जाकर सहायता मांग सकता हूं ?’ उसकी पत्नी ने तुरंत उत्तर दिया, “तो क्या हुआ ? मित्रता में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं होता। आप उनसे अवश्य सहायता मांगें। मुझसे बच्चों की भूख-प्यास नहीं देखी जाती।’ अंत: सुदामा श्रीकृष्ण के पास जाने को राजी हो गया। उसकी पत्नी पड़ोसियों से थोड़े-से चावल मांगकर ले आई तथा सुदामा को वे चावल अपने मित्र को भेंट करने के लिए दे दिए। सुदामा द्वारका के लिए रवाना हो गया। महल के द्वार पर पहुंचने पर वहां के पहरेदार ने सुदामा को महल के अंदर जाने से रोक दिया। सुदामा ने कहा कि वह वहां के राजा श्रीकृष्ण का बचपन का मित्र है तथा वह उनके दर्शन किए बिना वहां से नहीं जाएगा। श्रीकृष्ण के कानों तक भी यह बात पहुंची। उन्होंने जैसे ही सुदामा का नाम सुना, उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। वे नंगे पांव ही सुदामा से भेंट करने के लिए दौड़ पड़े। दोनों ने एक-दूसरे को गले से लगा लिया तथा दोनों के नेत्रों से खुशी के आंसू निकल पड़े। श्रीकृष्ण सुदामा को आदर-सत्कार के साथ महल के अंदर ले

गए। उन्होंने स्वयं सुदामा के मैले पैरों को धोया। उन्हें अपने ही सिंहासन पर बैठाया। श्रीकृष्ण की पत्नियां भी उन दोनों के आदर-सत्कार में लगी रहीं। दोनों मित्रों ने एक साथ भोजन किया तथा आश्रम में बिताए अपने बचपन के दिनों को याद किया। भोजन करते समय जब श्रीकृष्ण ने सुदामा से अपने लिए लाए गए उपहार के बारे में पूछा तो सुदामा लज्जित हो गया तथा अपनी मैली-सी पोटली में रखे चावलों को निकालने में संकोच करने लगा। परंतु श्रीकृष्ण ने वह पोटली सुदामा के हाथों से छीन ली तथा उन चावलों को बड़े चाव से खाने लगे। भोजन के उपरांत श्रीकृष्ण ने सुदामा को अपने ही मुलायम बिस्तर पर सुलाया तथा खुद वहां बैठकर सुदामा के पैर तब तक दबाते रहे जब तक कि उसे नींद नहीं आ गई। कुछ दिन वहीं ठहर कर सुदामा ने कृष्ण से विदा होने की आज्ञा ली। श्रीकृष्ण ने अपने परिवारजनों के साथ सुदामा को प्रेममय विदाई दी। इस दौरान सुदामा अपने मित्र को द्वारका आने का सही कारण न बता सका तथा वह बिना अपनी समस्या निवारण के ही वापस अपने घर को लौट गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अपनी पत्नी तथा बच्चों को क्या जवाब देगा, जो उसका बड़ी ही बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। सुदामा के सामने अपने परिवारीजनों के उदास चेहरे बार-बार आ रहे थे। परंतु इस बीच श्रीकृष्ण अपना कर्तव्य पूरा कर चुके थे। सुदामा की टूटी झोंपड़ी एक सुंदर एवं विशाल महल में बदल गई थी। उसकी पत्नी तथा बच्चे सुंदर वस्त्र तथा आभूषण धारण किए हुए उसके स्वागत के लिए खड़े थे। श्रीकृष्ण की कृपा से ही वे धनवान बन गए थे। सुदामा को श्रीकृष्ण से किसी प्रकार की सहायता न ले पाने का मलाल भी नहीं रहा।

वास्तव में श्रीकृष्ण सुदामा के एक सच्चे मित्र साबित हुए थे, जिन्होंने गरीब सुदामा की बुरे वक्त में सहायता की।

श्रीमद् भागवत कथा के सप्तम दिवस पर कथा पंडाल में समस्त यजमानों सहित गणमान्य अतिथि एवं हजारों की संख्या में श्रद्धालु उपस्थित रहे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Facebook
Facebook
YouTube
Instagram
Telegram